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ऋ॒जि॒प्य ई॒मिन्द्रा॑वतो॒ न भु॒ज्युं श्ये॒नो ज॑भार बृह॒तो अधि॒ ष्णोः। अ॒न्तः प॑तत्पत॒त्र्य॑स्य प॒र्णमध॒ याम॑नि॒ प्रसि॑तस्य॒ तद्वेः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛjipya īm indrāvato na bhujyuṁ śyeno jabhāra bṛhato adhi ṣṇoḥ | antaḥ patat patatry asya parṇam adha yāmani prasitasya tad veḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒जि॒प्यः। ई॒म्। इन्द्र॑ऽवतः। न। भु॒ज्युम्। श्ये॒नः। ज॒भा॒र॒। बृ॒ह॒तः। अधि॑। स्नोः। अ॒न्तरिति॑। प॒त॒त्। प॒त॒त्रि। अ॒स्य॒। प॒र्णम्। अध॑। याम॑नि। प्रऽसि॑तस्य। तत्। वेरिति॒ वेः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:27» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ऋजिप्यः) सरल मार्ग चलनेवालों में श्रेष्ठ मनुष्य (श्येनः) वाज पक्षी के सदृश (बृहतः) बड़े (स्नोः) प्रकाशमान पुरुषार्थ से (इन्द्रावतः) ऐश्वर्य्य से युक्तों को (न) जैसे वैसे (भुज्युम्) भोग करनेवाले को (अधि, जभार) अधिक धारण करता है (अस्य) इसका (पर्णम्) पत्र (यामनि) मार्ग में और (प्रसितस्य) बँधे हुए (वेः) पक्षी का जो (पतत्रि) गिरनेवाला पत्र (अन्तः) मध्य में (पतत्) गिरता है (तत्) उसको (जभार) धारण करता है वह (अध) इसके अनन्तर (ईम्) सब प्रकार से आनन्द को प्राप्त होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे वाज पक्षी अपने पुरुषार्थ से बहुत भोग को प्राप्त होता और शीघ्र चलता है, वैसे ही पुरुषार्थ करनेवाले जन बहुत सुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

य ऋजिप्यो मनुष्यः श्येन इव बृहतः स्नोरिन्द्रावतो न भुज्युमधि जभार। अस्य पर्णं यामनि प्रसितस्य वेर्यत् पतत्रि पर्णमन्तः पतत् तज्जभार सोऽधेमानन्दं प्राप्नुयात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋजिप्यः) य ऋजुगामिषु साधुः (ईम्) सर्वतः (इन्द्रावतः) ऐश्वर्य्ययुक्तान् (न) इव (भुज्युम्) भोक्तारम् (श्येनः) श्येन इव (जभार) धरति (बृहतः) महतः (अधि) (स्नोः) प्रकाशमानात् पुरुषार्थात् (अन्तः) मध्ये (पतत्) पतति (पतत्रि) पतनशीलम् (अस्य) (पर्णम्) पत्रम् (अध) (यामनि) मार्गे (प्रसितस्य) बद्धस्य (तत्) (वेः) पक्षिणः ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा श्येनः पक्षी स्वपुरुषार्थेन पुष्कलं भोगं प्राप्नोति सद्यो गच्छति तथैव पुरुषार्थिनो जनाः पुष्कलं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे श्येन पक्षी आपल्या पुरुषार्थाने पुष्कळ भोग प्राप्त करतो व वेगाने उडतो तसेच पुरुषार्थ करणारे लोक अत्यंत सुख प्राप्त करतात. ॥ ४ ॥